Tuesday 5 June 2018

स्वामी विवेकानंद जी के बारे में कुछ अच्छी जानकारी

स्वामी विवेकानन्द का जन्म आज ही के दिन 12 जनवरी सन् 1863 को कोलकाता में हुआ था। उनके बचपन का नाम नरेन्द्रनाथ दत्त था। पिता विश्वनाथ दत्त कलकत्ता हाईकोर्ट के एक प्रसिद्ध वकील थे। विश्वनाथ दत्त पाश्चात्य सभ्यता में विश्वास रखते थे। वे अपने पुत्र नरेन्द्र को भी अँग्रेजी पढ़ाकर पाश्चात्य सभ्यता के ढर्रे पर चलाना चाहते थे। परन्तु उनकी माता भुवनेश्वरी देवी धार्मिक विचारों की महिला थीं। उनका अधिकांश समय भगवान शिव की पूजा-अर्चना में व्यतीत होता था। नरेन्द्र की बुद्धि बचपन से ही बड़ी तीव्र थी और परमात्मा को पाने की लालसा भी प्रबल थी। इस हेतु वे पहले ब्रह्म समाज में गए परन्तु वहाँ उनके चित्त को सन्तोष नहीं हुआ। वे वेदान्त और योग को पश्चिम संस्कृति में प्रचलित करने के लिये महत्वपूर्ण योगदान देना चाहते थे। दैवयोग से विश्वनाथ दत्त की मृत्यु हो गई।

घर का भार नरेन्द्र पर आ पड़ा। घर की दशा बहुत खराब थी। अत्यन्त दरिद्रता में भी नरेन्द्र बड़े अतिथि-सेवी थे। वे स्वयं भूखे रहकर अतिथि को भोजन कराते स्वयं बाहर वर्षा में रात भर भीगते-ठिठुरते पड़े रहते और अतिथि को अपने बिस्तर पर सुला देते। स्वामी विवेकानन्द अपना जीवन अपने गुरूदेव रामकृष्ण परमहंस को समर्पित कर चुके थे। उनके गुरूदेव का शरीर अत्यन्त रूग्ण हो गया था। गुरूदेव के शरीर-त्याग के दिनों में अपने घर और कुटुम्ब की नाजुक हालत व स्वयं के भोजन की चिन्ता किये बिना वे गुरू की सेवा में सतत संलग्न रहे। अमरीका में हुए सर्वधर्म सभा में उन्होंने अपने पहले भाषण से ही दुनिया को भारत की आध्यात्मिक शक्ति का परिचय दिया। स्वामी विवेकानन्द के ही प्रयासों से दुनिया को गुलाम भारत के इस अनमोल खजाने का पता चला जिसके बाद पूरे विश्व में शांति पाने के लिए भारत से सीखने की होड़ शुरु हो गई। 

स्वामी विवेकानंद से जुड़ी एक रोचक प्रसंग है शिकागो विश्व धर्म सम्मेलन में अपने भाषण के बाद विवेकानंद विदेश में काफी लोकप्रिय हो गए थे उनके वेदांत दर्शन से प्रभावित होकर हजारों लोग उनके शिष्य बन गए थे उसी समय एक विदेशी मेरा उनसे भेंट करने भारत आई काफी देर बात करने के बाद वह विदेशी महिला विवेकानंद से बोली स्वामी जी क्या आप मुझसे शादी करेंगे इस पर स्वामी जी चौक गए और मुस्कुराने लगे फिर बोले देवी ऐसा नहीं हो सकता क्योंकि मैं ब्रह्मचर्य का पालन कर रहा हूं लैला ने कहा ही स्वामी मुझे आप के समान ही प्रवीण बालक चाहिए जो आगे चलकर विश्व को एक नई दिशा दें और अपनी माता का नाम प्रसिद्ध करें इस बात को सुनकर स्वामी जी दोनों हाथ जोड़कर उसके सामने झुक गए और बोले हे देवी चलिए आज से ही मैं आपको अपनी माता मान लेता हूं इस पर आपको मेरे जैसा तेजस्वी बालक भी मिल जाएगा और मेरे ब्रह्मचर्य धर्म के पालन में भी कोई बाधा नहीं आएगी स्वामी जी का यह उत्तर सुनते ही महिला भाव विभोर हो गई तथा उनके पैरों में गिर पड़ी

इंग्लैंड में चाय पीते समय एक ब्रिटिश ने स्वामी विवेकानंद से कहा सभी लोग कप से चाय पी रहे हैं, और आपअसभ्य की तरह प्लेट से पी रहे हैं स्वामीजी ने बहुत सुंदर जवाब दिया इस समय यदि कोई मेहमान आ जाय तो आप की चाय जूठी हो चुकी है, आप किसी से बांट नही सकते, पर मेरी चाय जो कप में है वो जूठी नहीं है। मैं चाय के लिये उससे आग्रह कर सकता हूँ ये हमारी मिलबाँट कर खाने वाली भारतीय सभ्यता हैं। इस बात को सुनकर वह ब्रिटश बहुत प्रभावित हुआ और कहा भारत सबसे ज्यादा सभ्य लोग रहते है बस हम उसे ही सभ्यता मानते हैं जो हम अपने देश में देखते है परन्तु हम वास्तव में सभ्यता  के बारे में कुछ जानते ही नहीं इसलिए हमको भारत से सीखना चाइये।

विवेकानन्द बड़े स्वप्न दृष्टा थे। उन्होंने एक ऎसे समाज की कल्पना की थी जिसमें धर्म या जाति के आधार पर मनुष्य-मनुष्य में कोई भेद न रहे। उन्होंने वेदान्त के सिद्धान्तों को इसी रूप में रखा। अध्यात्मवाद बनाम भौतिकवाद के विवाद में पड़े बिना भी यह कहा जा सकता है कि समता के सिद्धान्त का जो आधार विवेकानन्द ने दिया उससे सबल बौद्धिक आधार शायद ही ढूँढा जा सके। विवेकानंद ओजस्वी और सारगर्भित व्याख्यानों की प्रसिद्धि विश्व भर में है। जीवन के अन्तिम दिन उन्होंने शुक्ल यजुर्वेद की व्याख्या की और कहा एक और विवेकानन्द चाहिये, यह समझने के लिये कि इस विवेकानन्द ने अब तक क्या किया है । उनके शिष्यों के अनुसार जीवन के अन्तिम दिन 4 जुलाई 1902 को भी उन्होंने अपनी ध्यान करने की दिनचर्या को नहीं बदला और प्रातः दो तीन घण्टे ध्यान किया और ध्यानावस्था में ही अपने ब्रह्मरन्ध्र को भेदकर महासमाधि ले ली। बेलूर में गंगा तट पर चन्दन की चिता पर उनकी अंत्येष्टि की गयी। इसी गंगा तट के दूसरी ओर उनके गुरू रामकृष्ण परमहंस का सोलह वर्ष पूर्व अन्तिम संस्कार हुआ था। उनके शिष्यों और अनुयायियों ने उनकी स्मृति में वहाँ एक मन्दिर बनवाया और समूचे विश्व में विवेकानन्द तथा उनके गुरू रामकृष्ण के सन्देशों के प्रचार के लिये 130 से अधिक केन्द्रों की स्थापना की। 

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