Sunday 3 June 2018

जीवन में ख़ुशी रहने के लिए इन पंद्रह बातों पर अवश्य विचार करें

1. माना कि ईश्वर परम संपदावान है फिर भी उन्हें पाने के लिए हमें उनके निमित्त कुछ तो देना ही पड़ेगा। जिस प्रकार व्यवहार में परस्पर एक दूसरे को वो वस्तु दी जाती है जो कि उसके पास न हो। जो वस्तु उसके पास पहले से मौजूद हो उस वस्तु को देने का भला क्या प्रयोजन ? ठीक ऐसे ही जो वस्तु ईश्वर के पास पहले से मौजूद हो, जिस अन्न, धन, संपत्ति को वो सब के लिये बांटते फिरते हैं, उसी अन्न, धन, संम्पति में से अगर हम एक छोटा सा भाग उन्हें अर्पित भी कर देते हैं तो बताओ भला वह उनके किस काम का ? शास्त्रों का मत है कि ईश्वर के पास सब कुछ का भंडार भरा पड़ा है, सिवाय अहंकार के और मनुष्य के पास भी अपना कुछ नहीं सिवाय अहंकार के भंडार के। स्मरण रहे, अगर ईश्वर को अगर कुछ अपना देना है तो अपने अहंकार को उनके चरणों में समर्पण कर दो।

2. यदि आपके पास अहंकार भाव है तो समझ लेना फिर आपको किसी और शत्रु की जरुरत ही नही क्योंकि अहंकार वो सब काम कर देगा शायद जो काम कोई महाशत्रु भी न कर सके। अहंकार बड़ा ही शक्तिशाली होता है। वो अहंकार ही तो था जिसके बल पर रावण ने साक्षात त्रिभुवनपति श्रीराम जी को ही चुनौती दे डाली, जिसके बल पर कंस ने जगत पालक को ही बालक मान कर उसे मारने के प्रयत्न शुरू कर दिए। जिसके बल पर दुर्योधन ने एक सती नारी के चीर पर ही भरी सभा में हाथ डालने का आदेश दे दिया। अहंकार आग की वो धधकती लपटें हैं, जो गर्म तो नहीं मगर जलाकर राख अवश्य कर देती हैं। अतः अहंकार में नहीं अपितु प्यार और उपकार में जीने का प्रयास करो।

3. नीति शास्त्र कहते हैं कि नीच और अधम श्रेणी के मनुष्य- कठिनाईयो के भय से किसी उत्तम कार्य को प्रारंभ ही नहीं करते। मध्यम श्रेणी के मनुष्य - कार्य को तो प्रारंभ करते हैं मगर विघ्नों को आते देख घबराकर बीच में ही छोड़ देते हैं। ये विघ्नों से लड़ने की सामर्थ्य नहीं रख पाते। उत्तम श्रेणी के मनुष्य- विघ्न बाधाओं से बार- बार प्रताड़ित होने पर भी प्रारंभ किये हुए उत्तम कार्य को तब तक नहीं छोड़ते, जब तक कि वह पूर्ण न हो जाए। कार्य जितना श्रेष्ठ होगा बाधाएं भी उतनी ही बड़ी होंगी। आत्मबल जितना ऊँचा होगा तो फिर सारी समस्याए स्वतः उतनी ही नीची नज़र आने लगेंगी। ध्यान रहे इस श्रृष्टि में श्रेष्ठ की प्राप्ति उसी को होगी जिसने सामना करना स्वीकार किया, मुकरना नहीं। अतः जीवन में उत्कर्ष के लिए संघर्ष जरुरी है।

4. वक्ता तो हर कोई बनना चाहता है मगर श्रोता कोई भी नहीं क्योंकि यहाँ पर हर आदमी दूसरों को सुनाना ज्यादा पसंद करता है बजाय खुद सुनने के। एक अच्छा वक्ता बनना जितना श्रेष्ठ है, एक अच्छा श्रोता बनना उससे भी श्रेष्ठ। भगवान् ने हमें कान दो दिए और मुख एक ही दिया ताकि हम सुने ज्यादा और बोलेन कम, परन्तु हम उल्टा ही करते है हम बोलते ज्यादा है और सुनते काम हैं। एक अच्छे श्रोता होने का अर्थ है अपने विवेक के बल पर यह तय करने की क्षमता रखना कि मेरे स्वयं के लिए कौन सी बात सुननी हितकर है और कौन सी अहितकर ? केवल बोलने की सामर्थ्य रखना ही नहीं अपितु सुनने की सामर्थ्य रखना भी एक कला है। केवल सुना जाए यही श्रोता का लक्षण नहीं है अपितु क्या सुना जाए ? और उसमे से कितना चुना जाए ? यही एक श्रेष्ठ श्रोता का लक्षण है।

5. यह इस प्रकृति का एक शास्वत नियम है यहाँ सदैव एक दूसरे द्वारा अपने से दुर्बलों को ही सताया जाता है। और अक्सर अपने से बलवानों को उनसे कुछ गलत होने के बावजूद भी छोड़ दिया जाता है। दुःख के साथ भी ऐसा होता है जितना आप दुखों से भागने का प्रयास करोगे उतना दुःख तुम्हारे ऊपर हावी होते जायेंगे। स्वामी विवेकानंद जी कहा करते थे कि दुःख बंदरों की तरह होते हैं जो पीठ दिखाने पर पीछा किया करते हैं और सामना करने पर भाग जाते हैं। समस्या चाहे कितनी बड़ी क्यों ना हो मगर उसका कोई न कोई समाधान तो अवश्य ही होता है। समस्या का डटकर सामना करना सीखो क्योंकि समस्या मुकाबला करने से दूर होगी मुकरने से नहीं।

6. वह आदमी जरूर महा अज्ञानी है, जो ऐसे हर सवाल का जबाब दे जो कि उससे पूछा ही न जाए। वास्तविक तौर पर ज्ञानी वही है जो केवल दूसरों की माँगी गयी सलाह पर ही सुझाव दे। अक्सर व्यवहार में यह बात देखने को मिलती है कि प्रश्न किसी और से किया जाता है और उत्तर किसी और से सुनने को मिलता है। अथवा प्रश्न एक किया जाता है और उत्तर चार मिल जाते हैं। भारतीय दर्शन में यह शब्दों का अपव्यय कहलाता है। जब शब्द ब्रह्म है, तो इसका अपव्यय करना कभी भी ज्ञानी का लक्षण नहीं हो सकता है। भगवान बुद्ध कहते हैं कम बोलना और काम का बोलना बस यही तो वाणी की तपस्चर्या है।

7. मिट्टी से ना दीवारों से घर बनता है घर वालों से। वर्तमान समय में आपसी रिश्ते जिस तरह टूट रहे हैं वह बड़ा विचारणीय है। जिस परिवार में अपनों से बड़ों को सम्मान नहीं दिया जाता और अपने से छोटों को प्यार तो वह फिर परिवार न होकर मात्र एक मकान रह जाता है। आपके बुजुर्ग शोभा हैं आपके घर-परिवार की, इसलिये उन्हें यथायोग्य सम्मान देना आवश्यक है। स्वयं की भूमिका अदा ना कर मात्र दूसरों से अपेक्षा रखना यही तो तनाव का प्रमुख कारण बन रहा है। आज के आदमी की सामाजिकता की वास्तविकता तो देखो कि फेसबुक पर उसके फ्रेंड्स की संख्या 5000 हो गई, पर कमाल की बात घर में सबसे बोलचाल बंद है। घर में कोई मित्र नहीं सबको शत्रु बना रखा है। क्लबों में जाकर लोग भाईचारा बढ़ा रहे हैं साथ में सगे भाई पर केस भी कर रहे हैं। 21वी सदी में हमारी प्रगति हुई है या दुर्गति, आप स्वयं सोचो।

8. कठिनतम और जटिलतम परिस्थितियों में भी धैर्य बना रहे इसी का नाम सज्जनता है। केवल फूल माला पहनने पर अभिवादन कर देना ही सज्जनों का का लक्षण नहीं। यह तो कोई साधारण से साधारण मनुष्य भी कर सकता है। मगर काँटों का ताज पहनने के बाद भी चेहरे पर सहजता का भाव बना रहे, बस यही सज्जनता व महानता का लक्षण है। भृगु जी ने लात मारी और पदाघात होने के बाद भी भगवान विष्णु जी ने उनसे क्षमा माँगी। इस कहानी का मतलब यह नहीं कि सज्जनों को लात से मारो अपितु यह है कि सज्जन वही है जो दूसरों के त्रास को भी विनम्रता पूर्वक झेल जाए। सज्जन का मतलब सम्मानित व्यक्ति नहीं अपितु सम्मान की इच्छा से रहित व्यक्तित्व है। जो सदैव शीलता और प्रेम रुपी आभूषणों से सुसज्जित है वही सज्जन है।

9. अच्छे व्यापार के लिए ही नहीं अपितु अच्छे व्यवहार के लिए भी सदैव प्रयत्नशील बने रहो। जहाँ अच्छा व्यापार आपको सुखी रखेगा वहीं अच्छा व्यवहार आपको आंतरिक ख़ुशी प्रदान करेगा। हमारे जीवन में कई क्लेशों का केवल एक ही कारण है वह है स्वभाव। कुछ ना हो तो अभाव सताता है। कुछ हो तो भाव सताता है और सब कुछ हो तो फिर स्वभाव सताता है। बुरे स्वभाव से हम आसान चीजों को भी क्लिष्ट बना लेते हैं। गलत व्यवहार, क्रोध, ह्रदय में अशांति और भय पैदा करता है। वाह्य ख़ुशी तो व्यापार दे देगा पर भीतर की प्रसन्नता, आनंद और निर्भीकता तो मधुर व्यवहार ही देगा। व्यपार के लिए ही नहीं व्यवहार के लिए भी चिंतन किया करो।

10. यद्यपि जीवन में बहुत सारी जटिलताएं हैं तथापि इसमें थोड़े से परिवर्तन मात्र से बहुत सरल, सुखद और आनंद दायक बनाया जा सकता है। जैसा व्यवहार हम दूसरों के माता - पिता और बीवी - बच्चों के साथ करते हैं बस ऐसा व्यवहार हम खुद के परिवार से करने लग जाएं। जितनी प्रतिष्ठा और निष्ठा के साथ हम सबके सामने जीवन जीने का दिखावा करते हैं, बस उतनी ही प्रतिष्ठा और निष्ठा के साथ हम एकांत में जीने लग जाएं। जितने सुझाव हम बिना मांगे दूसरों को देते रहते हैं, उन में से बस कुछेक सुझावों को यदि हम स्वयं भी मानने लग जाएँ तो फिर सत्य समझ लेना, जीवन की बहुत सारी मुश्किलें स्वतः हल होने लग जायँगी और जीवन बहुत सरल लगने लग जायेगा।

11. कोई भी परिस्थिति हमें इतना विचलित नहीं करती जितना कि हमारी मनस्थिति हमें विचलित करती है। अगर मनस्थिति उच्च हो तो दुर्गम से दुर्गम परिस्थिति पर हम भी माँ दुर्गा की तरह विजय प्राप्त कर सकते हैं। और यदि मनस्थिति निम्न हो तो छोटी से छोटी घटनाओं से हम विचलित होने लगेगें। यह बात ज्यादा मायने नहीं रखती है कि हमारे सामने परिस्थिति कैसी है अपितु जितनी यह बात मायने रखती है कि हमारी मनस्थिति कैसी है ? परिस्थितियों के साथ जूझने के वजाय अपनी मनस्थिति के साथ सूझने व बूझने का प्रयास करो फिर आपको अपने आप लगने लगेगा कि वाकई परिस्थिति इतनी भी प्रतिकूल नहीं जितना कि मैंने उसे बनाया था। परिस्थिति को नहीं मनस्थिति को सुधारने का प्रयास करें।

12. सत्य है कि लोहे से ही लोहे को काटा जा सकता है और पत्थर से ही पत्थर को तोड़ा जा सकता है। मगर ह्रदय चाहे कितना भी कठोर क्यों ना हो उसको पिघलने के लिए कभी भी कठोर वाणी कारगर नहीं हो सकती क्योंकि वह केवल और केवल नरम वाणी से ही पिघल सकता है। क्रोध को क्रोध से नहीं जीता जा सकता, बोध से जीता जा सकता है। अग्नि अग्नि से नहीं बुझती जल से बुझती है। समझदार व्यक्ति बड़ी से बड़ी बिगड़ती स्थितियों को दो शब्द प्रेम के बोलकर संभाल लेते हैं। हर स्थिति में संयम रखो, संयम ही आपको क्लेशों से बचा सकता है। आँखों में शर्म रहे और वाणी नरम रहे तो समझ लेना परम सुख आपसे दूर नहीं। रूठते हैं शब्द भी अपने गलत इस्तेमाल होने पर, देखा है हमने शब्दों को भी अकसर रूठते हुए।

13. श्री कृष्ण जी कहते हैं, मनुष्य अपने जीवन के सारे निर्णय भविष्य के सुख के आधार पर करता है, परंतु भविष्य कोई नहीं जानता, केवल कल्पना मात्र है। इसका अर्थ, हम जीवन के सारे निर्णय कल्पनाओं के आधार पर ही करते हैं, परंतु यदि हम सारे निर्णय धर्म के आधार पर करें तो भविष्य निश्चित रूप से सुखमय होगा। क्योंकि सारे सुखों का अाधार धर्म ही है, और धर्म मनुष्य के हृदय में बसता है। तो प्रत्येक निर्णय करने से पूर्व अपनी हृदय की ध्वनि को अवश्य सुनना मित्रों हृदय की वाणी ही ईश्वर की वाणी होता है।

14. यहाँ प्रत्येक वस्तु, पदार्थ और व्यक्ति एक ना एक दिन सबको जीर्ण-शीर्ण अवस्था को प्राप्त करना है। जरा (जरा माने -नष्ट होना, बुढ़ापा या काल) किसी को भी नहीं छोड़ती। " तृष्णैका तरुणायते " लेकिन तृष्णा कभी वृद्धा नहीं होती सदैव जवान बनी रहती है और ना ही इसका कभी नाश होता है। घर बन जाये यह आवश्यकता है, अच्छा घर बने यह इच्छा है और एक से क्या होगा ? दो तीन घर होने चाहियें , बस इसी का नाम तृष्णा है। तृष्णा कभी ख़तम नहीं होती। विवेकवान बनो, बिचारवान बनो, और सावधान होओ। खुद से ना मिटे तृष्णा तो कृष्णा से प्रार्थना करो। कृष्णा का आश्रय ही तृष्णा को ख़तम कर सकता है।

15. गुलामी की वजह से हम कमजोर नहीं बनते अपितु कमजोरी हमें गुलाम बना देती है। दूसरों के नियंत्रण में रहने का नाम गुलामी नहीं अपितु स्वनियंत्रित न हो पाना, यही महागुलामी है। गुलामी का मतलब यह नहीं कि आप दूसरों की इच्छा से काम कर रहे हैं अपितु यह है कि आप अनिच्छा से काम कर रहे हैं। गुलामी का अर्थ शरीरगत बंधन नहीं अपितु विचारगत पराधीनता है। किसी भी दशा में आपके श्रेष्ठ विचारों का अतिक्रमण न हो इसी का नाम स्वतंत्रता है ! मंजर बदल देती है जीने की अदा, कोई पिंजरे के बाहर भी कैद रहा, कोई पिंजरे के भीतर भी आज़ाद जिया।

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