Saturday 12 May 2018

शिव रुद्राष्टकम का पाठ हिंदी अर्थ में

श्री रामचरित्र मानस के उत्तर काण्ड में वर्णित इस रूद्राष्टक की कथा कुछ इस प्रकार है। कागभुशुण्डि परम शिव भक्त थे। वो शिव को परमेश्वर एवं अन्य देवों से अतुल्य जानते थे। उनके गुरू श्री लोमेश शिव के साथ-साथ राम में भी असिम श्रद्धा रखते थे। इस वजह से कागभुशुण्डि का अपने गुरू के साथ मत-भेद था।

गुरू ने समझाया कि स्वयं शिव भी राम नाम से आनन्दित रहते हैं तो तू राम की महिमा को क्यों अश्वीकार करता है। ऐसे प्रसंग को शिवद्रोही मान कागभुशुण्डि अपने गुरू से रूष्ट हो गए।

इसके उपरांत कागभुशुण्डि एक बार एक महायज्ञ का आयोजन कर रहे थे। उन्होंने अपने यज्ञ की सूचना अपने गुरू को नहीं दी। फिर भी सरल हृदय गुरू अपने भक्त के यज्ञ  में सम्मिलित होने को पहुँच गए। शिव पूजन में बैठे कागभुशुण्डि ने गुरू को आया देखा। किन्तु कागभुशुंडी अपने आसन से न उठे, न उनका कोई सत्कार ही किया।

सरल हृदय गुरू ने एक बार फिर इसका बुरा नहीं माना, पर महादेव तो महादेव ही हैं, वो अनाचार क्यों सहन करने लगे ?? भविष्यवाणी हुई – अरे मुर्ख, अभिमानी ! तेरे सत्यज्ञानी गुरू ने सरता वस तुझपर क्रोध नहीं किया। लेकिन, मैं तुझे श्राप दूंगा, क्योंकि नीति का विरोध मुझे नहीं भाता, यदि तुझे दण्ड ना मिला तो वेद मार्ग भ्रष्ट हो जाएंगे, जो गुरू से ईर्ष्या करते हैं वो नर्क के भागी होते हैं, तू गुरू के सम्मुख भी अजगर की भांति ही बैठा रहा। अत: अधोगति को पाकर अजगर बनजा तथा किसी वृक्ष की कोटर में ही रहना।

इस प्रचंड श्राप से दुःखी हो तथा अपने शिष्य के लिए क्षमा दान पाने की अपेक्षा से, शिव को प्रसन्न करने हेतु; गुरू ने प्रार्थना की तथा रूद्राष्टक की वाचना की तथा आशुतोष भगवान को प्रसन्न किया। कथासार में शिव अनाचारी को क्षमा नहीं करते, यद्यपि वो उनका परम भक्त ही क्यूँ ना हो।

परम शिव भक्त कागभुशुण्डि ने जब अपने गुरू की अवहेलना की तो वे भगवान शिव के क्रोध-भाजन हुए, अपने शिष्य के लिए क्षमादान की अपेक्षा रखने वाले सहृदय गुरू ने रूद्राष्टक की रचना की तथा महादेव को प्रसन्न किया।

गुरु के तप व शिव भक्ति के प्रभाव से यह शिव स्तुति बड़ी ही शुभ व मंगलकारी शक्तियों से सराबोर मानी जाती है। साथ ही मन से सारी परेशानियों की वजह अहंकार को दूर कर विनम्र बनाती है। शिव की इस स्तुति से भी भक्त का मन भक्ति के भाव और आनंद में इस तरह उतर जाता है कि, हर रोज व्यावहारिक जीवन में मिली नकारात्मक ऊर्जा, तनाव, द्वेष, ईर्ष्या और अहं को दूर कर देता है। यह स्तुति सरल, सरस और भक्तिमय होने से शिव व शिव भक्तों को बहुत प्रिय भी है। धार्मिक नजरिए से शिव पूजन के बाद इस स्तुति के पाठ से शिव शीघ्र प्रसन्न होते हैं। सम्पुर्ण कथा रामचरितमानस के उत्तरकाण्ड में वर्णित है। तो नीचे रूद्राष्टक का पाठ हिंदी अर्थ के साथ दिया गया है।

नमामीशमीशान निर्वाणरूपं, विभुं व्यापकं ब्रह्मवेदस्वरूपम। 
निजं निर्गुणं निर्विकल्पं निरीहं, चिदाकाशमाकाशवासं भजेहम।।
हे भगवन ईशान को मेरा प्रणाम ऐसे भगवान जो कि निर्वाण रूप हैं जो कि महान ॐ के दाता हैं जो सम्पूर्ण ब्रम्हांड में व्याप्त हैं जो अपने आपको धारण किये हुए हैं जिनके सामने गुण अवगुण का कोई महत्व नहीं, जिनका कोई विकल्प नहीं, जो निष्पक्ष हैं जिनका आकर आकाश के सामान है जिसे मापा नहीं जा सकता उनकी मैं उपासना करता हूँ। 

निराकारमोङ्करमूल तुरीयं, गिराज्ञानगोतीतमीशं गिरीशम्।
करालं महाकालकालं कृपालं, गुणागारसंसारपारं नतोहम।।
जिनका कोई आकार नहीं, जो ॐ के मूल हैं, जिनका कोई राज्य नहीं, जो गिरी के वासी हैं, जो कि सभी ज्ञान, शब्द से परे हैं, जो कि कैलाश के स्वामी हैं, जिनका रूप भयावह हैं, जो कि काल के स्वामी हैं, जो उदार एवम् दयालु हैं, जो गुणों का खजाना हैं, जो पुरे संसार के परे हैं उनके सामने मैं नत मस्तक हूँ।
      
तुषाराद्रिसंकाशगौरं गभिरं, मनोभूतकोटिप्रभाश्री शरीरम्।
स्फुरन्मौलिकल्लोलिनी चारुगङ्गा, लसद्भालबालेन्दु कण्ठे भुजङ्गा।।
जो कि बर्फ के समान शील हैं, जिनका मुख सुंदर है, जो गौर रंग के हैं जो गहन चिंतन में हैं, जो सभी प्राणियों के मन में हैं, जिनका वैभव अपार हैं, जिनकी देह सुंदर हैं, जिनके मस्तक पर तेज हैं जिनकी जटाओ में लहलहारती गंगा हैं, जिनके चमकते हुए मस्तक पर चाँद हैं, और जिनके कंठ पर सर्प का वास हैं। 

चलत्कुण्डलं भ्रूसुनेत्रं विशालं, प्रसन्नाननं नीलकण्ठं दयालम्। 
मृगाधीशचर्माम्बरं मुण्डमालं, प्रियं शङ्करं सर्वनाथं भजामि।।
जिनके कानों में बालियाँ हैं, जिनकी सुन्दर भोएं और बड़ी-बड़ी आँखे हैं जिनके चेहरे पर सुख का भाव हैं जिनके कंठ में विष का वास हैं जो दयालु हैं, जिनके वस्त्र शेर की खाल हैं, जिनके गले में मुंड की माला है ऐसे प्रिय शंकर पूरे संसार के नाथ हैं उनको मैं पूजता हूँ। 

प्रचण्डं प्रकृष्टं प्रगल्भं परेशं, अखण्डं अजं भानुकोटिप्रकाशं। 
त्र्यःशूलनिर्मूलनं शूलपाणिं, भजेहं भवानीपतिं भावगम्यम।।
जो भयंकर हैं, जो परिपक्व साहसी हैं, जो श्रेष्ठ हैं अखंड है जो अजन्मे हैं जो सहस्त्र सूर्य के सामान प्रकाशवान हैं जिनके पास त्रिशूल हैं जिनका कोई मूल नहीं हैं जिनमे किसी भी मूल का नाश करने की शक्ति हैं ऐसे त्रिशूल धारी माँ भगवती के पति जो प्रेम से जीते जा सकते हैं उन्हें मैं वन्दन करता हूँ।

कलातीतकल्याण कल्पान्तकारी, सदा सज्जनानन्ददाता पुरारी।
चिदानन्दसंदोह मोहापहारी, प्रसीद प्रसीद प्रभो मन्मथारी।।
जो काल के बंधे नहीं हैं, जो कल्याणकारी हैं, जो विनाशक भी हैं, जो हमेशा आशीर्वाद देते हैं और धर्म का साथ देते हैं, जो अधर्मी का नाश करते हैं, जो चित्त का आनंद हैं, जो जूनून हैं जो मुझसे खुश रहे ऐसे भगवान जो कामदेव नाशी हैं उन्हें मेरा प्रणाम।

न यावद्उ मानाथपादारविन्दं, भजन्तीह लोके परे वा नराणाम।
न तावत्सुखं शान्ति सन्तापनाशं, प्रसीद प्रभो सर्वभूताधिवासं।।
जो यथावत नहीं हैं, ऐसे उमा पति के चरणों में कमल वन्दन करता हैं ऐसे भगवान को पूरे लोक के नर नारी पूजते हैं, जो सुख हैं, शांति हैं, जो सारे दुखो का नाश करते हैं जो सभी जगह वास करते हैं। 
   
न जानामि योगं जपं नैव पूजां, नतोहं सदा सर्वदा शम्भुतुभ्यम्।
जराजन्मदुःखौघ तातप्यमानं, प्रभो पाहि आपन्नमामीश शंभो।।
मैं कुछ नहीं जानता, ना योग, ना ध्यान हे देव के सामने मेरा मस्तक झुकता हैं, सभी संसारिक कष्टों, दुःख दर्द से मेरी रक्षा करे, मेरी बुढ़ापे के कष्टों से रक्षा करें, मैं सदा ऐसे शिव शम्भु को प्रणाम करता हूँ। 

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