आपको गंगा माता के धरती पर आगमन से संबंधित कथा सुनाते हैं। भगवान राम के कुल में राजा हुए हैं, सगर, श्रीराम जी से बहुत पहले, वह बड़े वीर थे, बड़े साहसी थे, उनका दबदबा चारों ओर फैला हुआ था। जब राजा सागर ने पूरे विश्व को जीत लिया तो तो राजा ने अश्वमेध यज्ञ किया। पुराने समय में राजाओं में अश्वमेध यज्ञ का रिवाज था।
इस यज्ञ में होता यह था कि एक घोड़ा पूजा करके छोड़ दिया जाता और घोड़ा पूरे विश्व में भ्रमण करता था, उसके पीछे राजा की सेना रहती, अगर किसी ने उस घोड़े को पकड़ लिया तो सेना उसे छुड़ा लेती। जब घोड़ा चारों ओर घूमकर वापस आ जाता तो अश्वमेध यज्ञ किया जाता थे और वह राजा चक्रवर्ती माना जाता। राजा सगर इसी प्रकार का यज्ञ कर रहे थे। संसार के सारे राजा सगर को चक्रवर्ती मानते थे।
देवों के राजा इंद्र को सगर की बढ़ती सम्रद्धि देखकर बड़ी जलन होती थी। जब उसे मालूम हुआ कि राजा सगर अश्वमेध यज्ञ करने जा रहे हैं तो वह चुपके से सगर के पूजा करके छोड़े हुए घोड़े को चुरा ले गया और कपिल मुनि के आश्रम में जाकर बांध दिया। दूसरे दिन जब घोड़े को छोड़ने की घड़ी पास आई तो पता चला कि अश्वशाला में घोड़ा नहीं है। सबके चेहरे उतर गये, यज्ञ-भूमि में शोक छा गया। पहरेदारों ने खोजा, सिपाहियों ने खोजा, उनके अफसरों ने खोजा, पास खोजा और दूर खोजा पर घोड़ा न मिला तो महाराज के पास समाचार पहुंचा। महाराज ने सुना और सोच में पड़ गये। रातोंरात घोड़े को इतनी दूर निकाल ले जाना मामूली चोर का काम नहीं हो सकता था।
राजा सगर की सबसे बड़ी रानी का एक बेटा था "असमंजस" और राजा सगर की छोटी रानियों के साठ हजार बेटे थे, सगर के ये पुत्र बहुत बलवान थे, बहुत चतुर थे और तरह-तरह की विद्याओं को जानने वाले थे, जो चाहते थे, कर सकते थे। जब सिपाही घोड़े का पता लगाकार हार गये तो महाराज ने अपने साठ हजार पुत्रों को बुलाया और कहा, पुत्रो चोर ने सूर्यवंश का अपमान किया है। तुम सब जाओ और घोड़े का पता लगाओ।
राजकुमारों ने घोड़े को खोजना शुरु किया। उसे झोंपड़ियों में खोजा, महलों में खोजा, खेड़ों में खोजा, नगलों में खोजा, गांवों और कस्बों में खोजा, नगरों और राजधानियों में खोजा, साधुओं के आश्रमों में गये, तपोवनों में गये और योगियों की गुफाओं में पहुंचे। पर्वतों के बरफीले सफेद शिखरों पर पहुंचे और नीचे उतर आये। वन-वन घूमे, आकाश, पाताल, पूरा छान मारा चौदहों भुवनों में भुवनों में खोजा पर यज्ञ का घोड़ा उनको कहीं नहीं दिखाई दिया।
राजकुमार घबराये नहीं उन्होंने धरती को ही खोदना शुरू कर दिया और धरती से पानी तक निकल आया, तो वे पानी में उतर गये। और जल में जाकर उन्होंने घोड़े को ढूंढा तैरकर वे दूर-दूर तक की खबर ले आये। जहां उनको गुफा का संदेह हुआ वहां खोद-खोदकर देखा। पर घोड़ा वहां भी नहीं मिला। चूंकि सगर के पुत्रों ने ही धरती को खोदकर पानी निकला था इसलिए पानी का वह श्रोत सागर कहलाने लगा।
ढूंढ़ते ढूंढ़ते वे मुनि कपिल के आश्रम में पहुंचे तो देखा वहां कपिल मुनि अपनी समाधि में लीन थे और ऋषि के पीछे कुछ दूर पर एक और पेड़ है, उसके तने से एक घोड़ा बंधा है। कुछ राजकुमार दोड़कर घोड़े के पास गये, घोड़ा पहचान लिया गया, यह वही यज्ञ का घोड़ा था जो यज्ञ राजा सागर कर रहे थे, ऋषि को देखा, तो उनका क्रोध भड़क उठा उन्होंने सोचा की कपिल मुनि ने ही हमारा घोड़ा चुरा लिया है तो वे क्रोध में भर गए और कपिल मुनि के ऊपर आक्रमण कर दिया जिसके कारण कपिल मुनि की आंखें खुलीं, और उस समय उनकी आँखों से जो तपस्या का तेज निकला उससे सगर के साठ हजार पुत्र जलकर भष्म हो गए। जब ऋषि की आंखें पूरी तरह से खुलीं तो उन्होंने अपने सामने बहुत सी राख की ढेरियां पड़ी पाई। तो कपिल मुनि समझ गए कि राजा सगर के पुत्र जलकर भष्म हो गए हैं।
जब साठ हजार राजकुमारों को गये बहुत दिन हो गये। उनकी कोई खबर न मिली तो राजा सगर की चिंता बढ़ने लगी। तब राजा सगर ने अपने पोते अंशुमान को बुलाया, अंशुमान के आने पर सगर ने उसका माथा चूमकर उसे छाती से लगा लिया और फिर कहा, “बेटा, तुम्हारे साठ हजार चाचा यज्ञ का घोड़ा खोजने गए थे लेकिन वो अभीतक वापिस नहीं आये हैं, हे अंशुमान उनका पता लगाओ कि वे कहाँ हैं। अंशुमान दादा की आज्ञा पालन करने के लिए तुरंत चल पड़ा।
जब अंशुमान जाने लगा तो बूढ़े राजा सगर ने उसे फिर छाती से लगाया, उसका माथा चूमा और आशीष देकर उसे विदा किया। अंशुमान भी ढूंढ़ते ढूंढ़ते मुनि कपिल के आश्रम में पहुंचा तो देखा दूर-दूर तक राख की ढेरियां फैली हुई थीं, ऐसी कि किसी ने सजाकर फैला दी हों, इतनी ढेरियां किसने लगाई? क्यों लगाई? वह उन ढेरियों को बचाता आगे बढ़ा, थोड़ा ही आगे गया था कि एक गम्भीर आवाज उसे सुनाई दी, “आओ, बेटा अंशुमान, यह घोड़ा बहुत दिनों से तुम्हारी राह देख रहा है।”
अंशुमान चौंका, उसने देखा एक दुबले-पतले ऋषि हैं, जो एक घोड़े के निकट खड़े हैं, इनको मेरा नाम कैसे मालूम हो गया? यह जरुर बहुत पहुंचे हुए हैं। अंशुमान रुका, उसने धरती पर सिर टेककर ऋषि को नमस्कार किया “आओ बेटा, अंशमान, यह घोड़ा तुम्हारी राह देख रहा है।” ऋषि बोले, “बेटा अंशुमान, तुम भले कामों में लगो। आओ मैं कपिल मुनि तुमको आशीष देता हूं।” अंशुमान ने उन महान कपिल को बारंबार प्रणाम किया।
कपिल बोले, “जो होना था, वह हो गया।” अंशुमान ने हाथ जोड़कर पूछा, “क्या हो गया, ऋषिवर?” ऋषि ने राख की ढेरियों की ओर इशारा करके कहा, “ये साठ हजार ढेरियां तुम्हारे चाचाओं की हैं, अंशुमान!” अंशुमान के मुंह से चीख निकल गई, उसके आंखों से आंसुओं की धारा बह चली।
ऋषि ने समझाया, “धीरज धरो बेटा, मैंने जब आंखें खोलीं तो तुम्हारी चाचाओं को फूस की तरह जलते पाया, उनका अहंकार उभर आया था, वे समझदारी से दूर हट गये थे, उन्होंने सोच-विचार छोड़ दिया था, वे अधर्म पर थे, अधर्म बुरी चीज है, पता नहीं, कब भड़क पड़े, उनका अधर्म भड़का और वे जल गये, मैं देखता रह गया और कुछ न कर सका।”
कपिल बोले, “बेटा, दुखी मत होओ, घोड़े को ले जाओ और अपने बाबा को धीरज बंधाओ। महाप्रतापी राजा सगर से कहना कि आत्मा अमर है, देह के जल जाने से उसका कुछ नहीं बिगड़ता।” अंशुमान ने मुनि कपिल के सामने सिर झुकाया और कहा, “ऋषिवर! मैं आपकी आज्ञा का पालन करुंगा, पर मेरे चाचाओं की मौत आग में जलने से हुई है, यह अकाल मौत है, उनको शांति कैसे मिलेगी?” कपिल ने कुछ देर सोचा और बोले, “बेटा, शांति का उपाय तो है, पर काम बहुत कठिन है।”
अंशुमान ने सिर झुकाकर कहा, “ऋषिवर! सूर्यवंशी कामों की कठिनता से नहीं डरते।” कपिल बोले, “गंगाजी धरती पर आयें और उनका जल इन राख की ढेरियों को छुए तो तुम्हारे चाचा तर जायंगे।”
अंशुमान ने पूछा, ” गंगाजी कौन हैं और कहां रहती है?” कपिल मुनि ने बताया, “गंगाजी विष्णु के पैरों के नखों से निकली हैं और ब्रह्मा के कमण्डल में रहती हैं।”
अंशुमान ने पूछा, ” गंगाजी को धरती पर लाने के लिए मुझे क्या करना होगा?” ऋषि ने कहा, ” तुमको ब्रह्मा की विनती करनी होगी। जब ब्रह्मा तप पर रीझ जायंगे तो प्रसन्न होकर गंगाजी को धरती पर भेज देंगे। उससे तुम्हारे चाचाओं का ही भला नहीं होगा, और भी करोंड़ों आदमी तरह-तरह के लाभ उठा सकेंगे।”
अंशुमान ने हाथ उठाकर वचन दिया कि जबतक गंगाजी को धरती पर नहीं उतार लेंगे, तब तक मेरे वंश के लोग चैन नहीं लेंगे। कपिल मुनि ने अपना आशीष दिया। अंशुमान सूर्य के वंश के थे, इसी कुल के सत्यवादी राजा हरिश्चन्द्र को छोटे बड़े सब जानते हैं।
यह समाचार अंशुमान ने दादा सगर को सुनाया तो राजा सगर तुरंत ही अपना सारा राज्य का भार अपने पोते अंशुमान को सौंप कर ब्रम्हा जी की तपस्या करने लगे। ब्रम्हा जी की तपस्या करते करते उन्होंने अपना शरीर त्याग दिया, फिर उनके बाद उनके पोते अंशुमान ने ब्रह्माजी की विनती की और बहुत कड़ा तप किया। तप में अपना शरीर घुला दिया, अपनी जान दे दी, पर ब्रह्माजी प्रसन्न नहीं हुए।
अंशुमान के बेटे हुए राजा दिलीप, दिलीप ने पिता के वचन को अपना वचन समझा, वह भी तप करने में जुट गये, बड़ा भारी तप किया, ऐसा तप किया कि ऋषि और मुनि चकित हो गये, उनके सामने सिर झुका दिया, पर ब्रह्मा उनके तप पर भी नही रीझे।
दिलीप के बेटे थे भगीरथ, भगीरथ के सामने बाबा का वचन था, पिता का तप था, उन्होंने मन को चारों ओर से समेटा और तप में लगा दिया, वह थे और था उनका तप।
सभी देवताओं को खबर लगी, देवों ने सोचा, “गंगाजी हमारी हैं, जब वह उतरकर धरती पर चली जायेंगी तो हमें कौन पूछेगा?” देवताओं ने सलाह की, और फिर उर्वशी तथा अलका को बुलाया गया, उनसे कहा गया कि जाओ, राजा भगीरथ के पास जाओ और ऐसा यतन करो कि वह अपने तप से डगमगा जाय, अपनी राह से विचलित हो जाय और छोटे-मोटे सुखों के चंगुल में फंस जाय।
उर्वशी ने भगीरथ को देखा, एक आदमी अपनी धुन में डूबा हुआ था, उन दोनों ने अपनी माया फैलाई, भगीरथ के चारों ओर बसंत बनाया, चिड़ियां चहकने लगीं, कलियां चटकने लगी, मंद पवन बहने लगा, लताएं झूमने लगीं, कुंजे मुस्कराने लगीं, दोनों अप्सराएं नाचीं, माया बखेरी, मोहिनी फैलाई और चाहा कि भगीरथ के मन को मोड़ दें, तप को तोड़ दें, पर वह नहीं हुआ।
जब उर्वशी का लुभावबढ़ा तो भगीरथ के तप का तेज बढ़ा। दोनों हारीं और लौट गई, उनके लौटते ही ब्रह्माजी पसीज गये, वह सामने आये और बोले, “बेटा, वर मांगा! वर मांग!” भागीरथ ने ब्रह्माजी को प्रणाम किया और बोले, “यदि आप मुझसे प्रसन्न हैं तो गंगाजी को धरती पर भेजिये।” भागीरथ की बात सुनकर ब्रह्माजी ने क्षणभर सोचा, फिर बोले, राजा भगीरथ तुम्हे गंगा को पृथ्वी पर लाने के लिए भगवती गंगा को प्रशन्न करना चाहिए तो में उनको पृथ्वी पैर भेज दूंगा तो फिर भगीरथ जी ने भगवती गंगा की तपस्या की।
उनकी तपस्या से प्रशन्न होकर पतित पावनी गंगा प्रशन्न हो गयी और प्रकट होकर बोलीं "भगीरथ" में तुम्हारी किस मनोकामना को पूरी करूँ। तो भगीरथ बोले कि आप धरती पर आकर मेरे वंशजों का उद्धार करें तो गंगा ने कहा में धरती पर तो आजाऊंगी पर मेरे वेग को कौन सम्हालेगा।
भगीरथ ने उनसे पूछा, “आप ही कोई उपाय बताइये।” तो गंगा बोलीं, “तुम भगवान शिव को प्रसन्न करो। यदि वह तैयार हो गये तो वे मेरे वेग को संभाल लेंगे और में धरती पर उतर आउंगी।
भगीरथ अब शिव को रिझाने के लिए तप करने लगे, भगवान शिव को कौन नहीं जानता? गांव-गांव में उनके शिवाले हैं, वह भोले बाबा हैं, उनके हाथ में त्रिशूल है, सिर पर जटा है, माथे पर चांद है, गले में सांप हैं, शरीर पर भभूत है, वह शंकर हैं, महादेव हैं, औढर-दानी है, वह सदा देते रहते है।
भगीरथ ने बड़े भक्ति भाव वे विनती की, हिमालय के कैलास पर निवास करने वाले शंकर रीझ गये, भगीरथ के सामने आये और अपना डमरु खड़-खड़ाकर बोले, “मांग बेटा, क्या मांगता है?” भगीरथ बोले, “भगवान, शंकर की जय हो! गंगा मैया धरती पर उतरना चाहती हैं, भगवन! कहती है” शिव ने भगीरथ को आगे नहीं बोलने दिया, वह बोले, “भगीरथ, तुमने बहुत बड़ा काम किया है, मैं सब बातें जानता हूं, तुम गंगा से विनती करो कि वह धरती पर उतरें, मैं उनको अपने माथे पर धारण करुंगा।”
भगीरथ ने आंखें ऊपर उठाई, हाथ जोड़े और गंगाजी से कहने लगे, “मां, धरती पर आइये, मां, धरती पर आइये, भगवान शिव आपको संभाल लेंगे, भगीरथ गंगाजी की विनती में लगे और उधर भगवान शिव गंगा को संभालने की तैयार करने लगे, गंगा ने ऊपर से देखा कि धरती पर शिव खड़े हैं, देखने में वह छोटे से लगते हैं, बहुत छोटे से, वह मुस्कराई, यह शिव और मुझे संभालेंगे? मेरे वेग को संभालेंगे? मेरे तेज को संभालेंगे? इनका इतना साहस? मैं इनको बता दूंगी कि गंगा को संभालना सरल काम नहीं है।
भगीरथ ने विनती की, शिव होशियार हुए और गंगा आकाश से टूट पड़ीं, गंगा उतरीं तो आकाश सफेदी से भर गया, पानी की फहारों से भर गया, रंग-बिरंग बादलों से भर गया, गंगा उतरीं तो आकाश में शोर हुआ, घनघोर हुआ, ऐसा कि लाखों-करोड़ों बादल एक साथ आ गये हों, लाखों-करोड़ों तूफान एक साथ गरज उठे हों।
गंगा उतरीं तो ऐसी उतरीं कि जैसे आकाश से तारा गिरा हो, अंगारा गिरा हो, बिजली गिरी हो, उनकी कड़क से आसमान कांपने लगा, दिशाएं थरथराने लगी, पहाड़ हिलने लगे और धरती डगमगाने लगी, गंगा उतरीं तो देवता डर गये, काम थम गये, सबने नाक-कान बंद कर लिये और दांतों तले उंगली दबा ली, गंगा उतरीं तो भगीरथ की आंखें बंद हो गई, वह शांत रहे, भगवान का नाम जपते रहे।
थोड़ी देर में धरती का हिलना बंद हो गया, कड़क शांत हो गई और आकाश की सफेदी गायब हो गई, भगीरथ ने भोले भगवान की जटाओं में गंगाजी के लहराने का सुर सुना। भगीरथ को ज्ञान हुआ कि गंगाजी शिव की जटा में फंस गई हैं, वह उमड़ती हैं, उसमें से निकलने की राह खोजती हैं, पर राह मिलती नहीं है। गंगाजी घुमड़-घुमड़कर रह जाती हैं, बाहर नहीं निकल पातीं, भगीरथ समझ गये, वह जान गये कि गंगाजी भोले बाबा की जटा में कैद हो गई हैं।
भगीरथ ने भोले बाबा को देखा, वह शांत खड़े थे, भगीरथ ने उनके आगे घुटने टेके और हाथ जोड़कर बैठ गये और बोले, “हे कैलाश के वासी, आपकी जय हो! आपकी जय हो! आप मेरी विनती मानिये और गंगाजी को छोड़ दीजिये!” भगीरथ ने बहुत विनती की तो शिव शंकर रीझ गये, उनकी आंखें चमक उठीं, हाथ से जटा को झटका दिया तो पानी एक धारा निकली। उसमें से कलकल का स्वर निकलने लगा। उसकी लहरें उमंग-उमंगकर किनारों को छूने लगीं और गंगा धरती पर आ गयीं।
भगीरथ गंगा जी को कपिल आश्रम तक ले जाने लगे तो रास्ते में जह्नु ऋषि का आश्रम गंगा के वेग से बह गया तो मुनि ने क्रोध में आकर पूरी की पूरी गंगा को पी लिया फिर भगीरथ की विनती के बाद उन्होंने गंगा को अपनी जंघा से निकला इस कारण गंगा जी का एक नाम जान्हवी भी है।
फिर गंगा जी कपिल आश्रम में पहुंच कर सगर के साठ हजार पुत्रों का उद्धार किया और आज भी गंगा जी हम सभी के पापों का नाश कर रहीं हैं।
No comments:
Post a Comment