Monday 30 October 2017

श्रील प्रभुपाद कहते हैं कि कृष्ण भावनामृत होना सब के ह्रदय में सुशुप्त है

सैन्डी निक्सन: मेरा एक प्रश्न है जो मैं एक अध्यात्मिक गुरू के विषय में एक पुस्तक प्रस्तुत करने जा रहा हूँ, जो अाज के अमरीकी निवासियों को प्रभावित कर रही है। एक लघु लेख भी जो न्यूयार्क टाईमज़ पत्रिका के कुछ बहुत महत्वपूर्ण लोगों के लिए है और मैं फ़िलेडेल्फ़िया पत्रिका के लिए एक लेख लिख रहा हूँ जो बहुत उच्च स्तर की कृष्ण भावनामृत के सिद्ध पुरूष हैं। विशेषकर इस पुस्तक के कुछ प्रश्न, सभी लोगों की जानकारी के लिए कि, कृष्ण भावना क्या है ? कभी मैं आप लोगों से प्रश्न पूछूँगा और कईं बार मैं स्वयं ही उनके देने में सक्षम रहूँगा या हो सकता है कि कोई प्रश्न, जिसका उत्तर मुझे ज्ञात है लेकिन फिर भी पूछूँगा भले ही वह तुम्हें बेकार लगे। लेकिन मैं यही करने जा रहा हूँ। 

प्रथम प्रश्न बहुत लम्बा हो सकता है कुल पन्द्रह प्रश्न हैं। यदि मुझे सब के उत्तर मिल सकें तो मुझे बहुत अच्छा लगेगा। सर्वप्रथम बहुत ही मौलिक प्रश्न है: कृष्ण भावनामृत क्या है ? 

प्रभुपाद: कृष्ण का अर्थ है "भगवान्" और हम सभी कृष्ण, भगवान् से संबन्धित हैं। भगवान् हमारे वास्तविक पिता हैं। इसलिए कृष्ण से हमारा घनिष्ठ संबन्ध है। हम भूल चुके हैं कि कृष्ण कौन हैं और उनके साथ मेरा क्या संबंध है; हमारे जीवन का लक्ष्य क्या है ? ये सभी प्रश्न हैं। और जब किसी को इन प्रश्नों के उत्तर जानने में रूचि होती है तो वह कृष्ण भावनामृत कहलाता है। 

सैन्डी निक्सन: कृष्ण भावनामृत का विकास कैसे हुआ? 
प्रभुपाद : सभी के ह्रदय में कृष्ण भावना पहले से ही है लेकिन यह भौतिक बद्ध जीवन होने के कारण वह भूल चुका है। "अत: हरे कृष्ण महामंत्र का जाप करने का अर्थ है पुन: उस कृष्ण भावना को जाग्रत करना ।" यह पहले से ही विद्यमान है। कुछ दिन पूर्व अमरीका और यूरोप के लड़के और लड़कियाँ जानते भी नहीं थे कि कृष्ण कौन हैं। लेकिन कल तुमने देखा कि किस तरह सभी मस्ती में मिलजुल कर जाप और नाच कर रहे थे। तो क्या तुम समझते हो कि यह बनावटी था? नहीं दिखावे के लिए कोई इतने घंटों तक मिलकर जाप और नाच नहीं सकते। इसका अर्थ है कृष्ण भावना की जाग्रती होना। यह पहले से ही यथार्थ रूप उपस्थित थी, लेकिन अब यह जागरूक हो गई है। 

ऐसा विस्तारित रूप से लिखा है
नित्य सिद्ध कृष्ण भक्ति सद्धया कभू नयशरवाणादि-शुद्ध चित्तकरये उद्या ( च च मध्य २२.१०७) 
कृष्ण भावनामृत होना सब के ह्रदय में होना सुशुप्त है। अत: जब वह भक्त के संपर्क में आता है तो वह जाग्रत हो जाती है। जैसे कि एक युवा लड़का, युवा लड़की से आकर्षित होता है। यह छुटपन से ही बच्चे में होता है। जब वह युवावस्था में आता है तो वह जाग्रत हो जाता है। यह कुछ झूठ या बनावटी नहीं है। यह संगति होने पर जाग्रत हुई। क्षमता तो पहले से ही है, अत: अच्छी संगति में श्री कृष्ण के विषय में सुनने से कृष्ण भावना का जागरण हुआ।

सेंडी निक्सन: कृष्ण भावनामृत और ईसाई भावना में क्या अंतर है? 
प्रभुपाद: ईसाई भावना भावनामृत, कृष्ण भावनामृत ही है। लेकिन ईसाई लोग नियमों का पालन नहीं करते। इसलिए वे जाग्रत नहीं हैं। वे लोग ईसा के धर्मादेशों का पालन नहीं करते इसलिए वे भावनामृत के स्तर पर नहीं पहुँच पाते। 

सेंडी निक्सन: कृष्ण भावनामृत में क्या विशेष बात है जो इसे अन्य धर्मों से अलग करती है? क्या यह धर्म है ? 

प्रभुपाद : धर्म का मूल अर्थ है भगवान् का ज्ञान होना और भगवान् से प्रेम करना। इसे धर्म कहते हैं। भगवान् का किसी को भी ज्ञान नहीं, प्यार करना तो दूर की बात है। किसी ने भी भगवान् के ज्ञान और भगवान् से प्रेम करने का प्रशिक्षण प्राप्त नहीं किया। वे केवल चर्च जाने में संतुष्ट हैं: " हे भगवान् हमें आज का भोजन दे दो।" और यह भी है कि सभी लोग नहीं जाते। साम्यवादी कहते हैं "तुम चर्च में मत जाओ, तुम्हें भोजन हम देंगे।" निर्धन लोगों को जिन्हें भोजन कहीं और से मिल जाता है, इसलिए वे चर्च नहीं जाते। लेकिन कोई भी भगवान् को समझने और उस से प्रेम करने के लिए गंभीरता से नहीं सोचता। कोई भी नहीं। इस लिए भागवतम् में कहा है कि यह धर्म से धोखाधड़ी है। मैं धर्म का अनुसरण करता हूँ लेकिन मुझे यह ज्ञात नहीं कि भगवान् कौन है और उसे कैसे प्रेम करना है। इसलिए इस प्रकार का धर्म तो धोखा है। 

धर्म का अर्थ है भगवान् का ज्ञान होना और उससे प्रेम करना। लेकिन अधिकतर लोग नहीं जानते कि भगवान् क्या है तो उनसे प्रेम करने के लिए तो क्या कहें? यह तो धर्म से धोखा करना हुआ। यह धर्म नहीं। जहाँ तक ईसाई धर्म की बात है, इसमें भगवान् को समझने का काफ़ी अवसर मिलता है, लेकिन लोग इस तरफ़ ध्यान ही नहीं देते। उदाहरण के लिए, धर्मादेशों में यह है, "हत्या नहीं करनी है।" लेकिन ईसाई जगत् में बहुत अच्छे कसाईखाने आयोजित हैं। तो वे किस प्रकार भगवान् भावनामृत हो  सकते हैं? वे धर्मादेशों की ही अवज्ञा करते हैं। ईसामसीह ने जो कहा था, वे लोग परवाह नहीं करते। यह केवल ईसाई धर्म में ही नहीं बल्कि सभी धर्मों का यही हाल है। मैं हिन्दू हूँ यह तो केवल एक रब्बर का ठप्पा है। किसी को भी न तो भगवान् का ज्ञान है न ही वे जानते हैं कि उनसे प्रेम कैसे करना है। 

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